Posts

Showing posts from February 25, 2019

ध्रुवस्वामिनी नाटक ( Part 3 )

नाटक ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद अनुक्रम तृतीय अंक पीछे      (शक-दुर्ग के भीतर एक प्रकोष्ठ। तीन मंचों में दो खाली और एक पर ध्रुवस्वामिनी पादपीठ के ऊपर बाएँ पैर पर दाहिना पैर रखकर अधरों से उँगली लगाए चिन्ता में निमग्न बैठी है। बाहर कुछ कोलाहल होता है।) सैनिक : (प्रवेश करके)  महादेवी की जय हो! ध्रुवस्वामिनी : (चौंककर)  क्या! सैनिक :  विजय का समाचार सुनकर राजाधिराज भी दुर्ग में आ गए हैं। अभी तो वे सैनिकों से बातें कर रहे हैं। उन्होंने पूछा है, महादेवी कहाँ हैं? आपकी जैसी आज्ञा हो, क्योंकि कुमार ने कहा है... ! ध्रुवस्वामिनी :  क्या कहा है? यही न कि मुझसे पूछकर राजा यहाँ आने पावें? ठीक है, अभी मैं बहुत थकी हूँ।  (सैनिक जाने लगता है, उसे रोककर)  और सुनो तो! तुमने यह नहीं बताया कि कुमार के घाव अब कैसे हैं? सैनिक :  घाव चिन्ताजनक नहीं हैं। उन पर पट्टियाँ बँध चुकी हैं। कुमार प्रधान-मंडप में विश्राम कर रहे हैं। ध्रुवस्वामिनी :  अच्छा जाओ।  (सैनिक का प्रस्थान) मन्दाकिनी : (सहसा प्रवेश करके)  भाभी! ब...

ध्रुवस्वामिनी नाटक ( Part 2 )

नाटक ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद अनुक्रम द्वितीय अंक पीछे      आगे (एक दुर्ग के भीतर सुनहले कामवाले खम्भों पर एक दालान, बीच में छोटी-छोटी-सी सीढ़ियाँ, उसी के सामने कश्मीरी खुदाई का सुंदर लकड़ी का सिंहासन। बीच के दो खंभे खुले हुए हैं, उनके दोनों ओर मोटे-मोटे चित्र बने हुए तिब्बती ढंग से रेशमी पर्दे पड़े हैं, सामने बीच में छोटा-सा आँगन की तरह जिसके दोनों ओर क्यारियाँ, उनमें दो-चार पौधे और लताएँ फूलों से लदी दिखलाई पड़ती हैं।) कोमा : (धीरे-धीरे पौधों को देखती हुई प्रवेश करके)  इन्हें सींचना पड़ता है, नहीं तो इनकी रुखाई और मलिनता सौंदर्य पर आवरण डाल देती हैं।  (देखकर)  आज तो इनके पत्ते धुले हुए भी नहीं हैं। इनमें फूल जैसे मुकुलित होकर ही रह गए हैं। खिलखिलाकर हँसने का मानो इन्हें बल नहीं।  (सोचकर)  ठीक, इधर कई दिनों में महाराज अपने युद्ध-विग्रह में लगे हुए हैं और मैं भी यहाँ नहीं आई, तो फिर इनकी चिन्ता कौन करता? उस दिन मैंने यहाँ दो मंच और भी रख देने के लिए कह दिया था, पर सुनता कौन है? सब जैसे रक्त के प्यासे! प्राण लेने और देने म...

A list of Blog Posts (Playlist)

Show more

Follow us on Twitter

आपकी आगंतुक संख्या