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प्रेम विस्तार है स्वार्थ संकुचन - स्वामी विवेकानन्द

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प्रेम विस्तार है स्वार्थ संकुचन - स्वामी विवेकानन्द ये उद्गार शब्द शक्ति के विख्याता , भारत के महान दार्शनिक सन्त स्वामी विवेकानन्द द्वारा व्यक्त किये गये है। स्वामी जी द्वारा कही , अपने जीवन चक्र में पालन की हुयी तथा दूसरों को इसकी प्रेरणा के लिए ये पंकितियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं।       संत विवेकानंद द्वारा कही लगभग सभी पंकितयों में मानवप्रेम का पारावार पूर्णतयः दिखाई देता है। वे जन जन को मानव से प्रेम करने का आवाह्न करते हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि एक-दूसरे से सहज प्रेम भाव ही मानवता है , मानवता के विकास का आधार है। स्वार्थ , ईर्ष्या , द्वेषभाव त्यागकर श्रेष्ठ मानव समाज की भावना को व्यक्त करते हुये नीचे लिखी पंकितयां उसके भाव को स्पष्ट करती हैं --- तुम द्वेष के हर घाव को सीना सीखो विष छोड़कर अब अमृत को पीना सीखो ए-चाँद सितारों पर पहुँचने वालो मानव की तरह धरती पर रहना सीखो स्वार्थ का अर्थ होता है - स्व + अर्थ ( निज हित ) स्वार्थ हमारी मनोस्थिति के सोचने की शक्ति को सीमित करता है अतएव हमारा विकास भी सीमित होता है। प्रेम विस्तार स्वार्थ संकुचन का प्रत्यक्ष उदाहरण

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