प्रेम विस्तार है स्वार्थ संकुचन - स्वामी विवेकानन्द
प्रेम विस्तार है स्वार्थ संकुचन - स्वामी विवेकानन्द
ये उद्गार शब्द शक्ति के विख्याता , भारत के महान दार्शनिक सन्त स्वामी विवेकानन्द द्वारा व्यक्त किये गये है। स्वामी जी द्वारा कही , अपने जीवन चक्र में पालन की हुयी तथा दूसरों को इसकी प्रेरणा के लिए ये पंकितियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं।
संत विवेकानंद द्वारा कही लगभग सभी पंकितयों में मानवप्रेम का पारावार पूर्णतयः दिखाई देता है। वे जन जन को मानव से प्रेम करने का आवाह्न करते हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि एक-दूसरे से सहज प्रेम भाव ही मानवता है , मानवता के विकास का आधार है। स्वार्थ , ईर्ष्या , द्वेषभाव त्यागकर श्रेष्ठ मानव समाज की भावना को व्यक्त करते हुये नीचे लिखी पंकितयां उसके भाव को स्पष्ट करती हैं ---
विष छोड़कर अब अमृत को पीना सीखो
ए-चाँद सितारों पर पहुँचने वालो
मानव की तरह धरती पर रहना सीखो
स्वार्थ का अर्थ होता है - स्व + अर्थ ( निज हित ) स्वार्थ हमारी मनोस्थिति के सोचने की शक्ति को सीमित करता है अतएव हमारा विकास भी सीमित होता है।
प्रेम विस्तार स्वार्थ संकुचन का प्रत्यक्ष उदाहरण हमारा देश भारत ( पूर्व नाम - आर्यावर्त ) स्वं है। हमारे देश में अनेक विदेशी शाषकों ने निज हित को प्राथमिकता देकर शाषन किया इसी स्वार्थ की भावना की वजह से हमारा अखण्ड भारत सिर्फ भारत बनकर रह गया।
1876 में अफगानिस्तान अलग हुआ कारण - दिल्ली के बादशाह "मुहम्म्द शाह अकबर" का निजी स्वार्थ
1906 में भूटान अलग हुआ कारण - ब्रिटेन के जनरल का निजी स्वार्थ
1914 तिब्बत , 1935 श्रीलंका , 1937 म्यांमार , 1947 पाकिस्तान और 1971 बांग्लादेश आदि इन सभी राष्ट्रों के भारत से अलग होने की कोई न कोई ख़ास वजह और किसी शाषक का निजी स्वार्थ शामिल है।
अतः हमारे पूर्वजों ( ऋषि ,मुनि ,पादरी ) ने जिस अखण्ड भारत की नींव रखी थी उसका संकुचन होता गया और उसकी सीमाएं छोटी होती गयीं।
स्वामी जी ने मानवता की उपासना की है , वह सत्य अहिंसा और प्रेम के पुजारी थे। उनके मन में जन जन के कल्याण की भावना थी। प्रेम एक ऐसी क्रिया है जिसे हम सम्पूर्ण प्रकृति पर देख सकते हैं। प्रेम हमारे जीवन विस्तार में भी सहायक है वहीं स्वार्थ हमारे जीवन को उस पहलू पर लाकर खड़ा कर देगा जहां पर हमें प्रेम का सहारा लेना पड़ता है अपने उस स्वार्थ को छिपाने के लिए।
प्रेम हमारे सृजनात्मक जीवन की आवश्यकता है , प्रेम का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। मानव अनुभूतियों में प्रेमानुभूति को यदि सर्वोपरि कहा जाए तो अनुचित न होगा। विश्व साहित्य के लगभग सभी पहलुओं में प्रेम की वरीयता सबसे आगे होती है। प्रेम का सम्बन्ध रागात्मक वृत्ति से होता है वहीं स्वार्थ को मनोवृत्ति माना जाता है जो हमारे अंतःकरण ( दिल ) से नहीं अपितु मन से निकलती है।
जब सह्रदय व्यक्ति मनोनुकूल सुन्दर वस्तु , व्यक्ति या
प्रेम विस्तार स्वार्थ संकुचन का प्रत्यक्ष उदाहरण हमारा देश भारत ( पूर्व नाम - आर्यावर्त ) स्वं है। हमारे देश में अनेक विदेशी शाषकों ने निज हित को प्राथमिकता देकर शाषन किया इसी स्वार्थ की भावना की वजह से हमारा अखण्ड भारत सिर्फ भारत बनकर रह गया।
1876 में अफगानिस्तान अलग हुआ कारण - दिल्ली के बादशाह "मुहम्म्द शाह अकबर" का निजी स्वार्थ
1906 में भूटान अलग हुआ कारण - ब्रिटेन के जनरल का निजी स्वार्थ
1914 तिब्बत , 1935 श्रीलंका , 1937 म्यांमार , 1947 पाकिस्तान और 1971 बांग्लादेश आदि इन सभी राष्ट्रों के भारत से अलग होने की कोई न कोई ख़ास वजह और किसी शाषक का निजी स्वार्थ शामिल है।
अतः हमारे पूर्वजों ( ऋषि ,मुनि ,पादरी ) ने जिस अखण्ड भारत की नींव रखी थी उसका संकुचन होता गया और उसकी सीमाएं छोटी होती गयीं।
स्वामी जी ने मानवता की उपासना की है , वह सत्य अहिंसा और प्रेम के पुजारी थे। उनके मन में जन जन के कल्याण की भावना थी। प्रेम एक ऐसी क्रिया है जिसे हम सम्पूर्ण प्रकृति पर देख सकते हैं। प्रेम हमारे जीवन विस्तार में भी सहायक है वहीं स्वार्थ हमारे जीवन को उस पहलू पर लाकर खड़ा कर देगा जहां पर हमें प्रेम का सहारा लेना पड़ता है अपने उस स्वार्थ को छिपाने के लिए।
प्रेम हमारे सृजनात्मक जीवन की आवश्यकता है , प्रेम का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। मानव अनुभूतियों में प्रेमानुभूति को यदि सर्वोपरि कहा जाए तो अनुचित न होगा। विश्व साहित्य के लगभग सभी पहलुओं में प्रेम की वरीयता सबसे आगे होती है। प्रेम का सम्बन्ध रागात्मक वृत्ति से होता है वहीं स्वार्थ को मनोवृत्ति माना जाता है जो हमारे अंतःकरण ( दिल ) से नहीं अपितु मन से निकलती है।
जब सह्रदय व्यक्ति मनोनुकूल सुन्दर वस्तु , व्यक्ति या
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