गुलाबी बतख़ // कहानी // दीक्षा चौधरी
रेगिस्तानी गाँव की गलियां सुबह के दस बजे ही ख़ाली लग रही थीं। धूल उड़ाती गर्म लू की आवाज़ ऐसी लगती जैसे कोई आवारा लड़का सीटी बजाता हुआ पूरे गाँव में दौड़ रहा हो। मनल और उसकी सहेलियों ने अपने सारे खेल खिलौने समेटकर नीम की छाया में जमा दिए थे। कुल्फ़ी वाले की घंटी बजी तब वो सब अपना रोज़ का आख़िरी खेल खेल रही थीं। उस खेल में एक पुरानी साइकिल थी, और बहुत सारे शहरों के नाम जो उन्होंने अख़बार में पढ़े थे या टीवी और रेडियो पर सुने थे। खेल ये था कि मनल साइकिल चलाती हुई आती और पीछे काठी पर बैठी लड़की चिल्लाती - "बस आ गयी बस! जिस जिसको चलना है आ जाओ!" "कहाँ जाएगी बस?" सवारी बनकर खड़ी लड़कियों में से कोई पूछती। यहाँ काठी पर बैठी लड़की को उन सारे शहरों के नाम बोलने होते थे, जो उसे पता थे। वो चिल्लाती - "बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर, दिल्ली..." "मुंबई... मुंबई... मुंबई..." मनल चिल्लाती। सब लड़कियां झट से साइकिल के पीछे कतार से काठी पकड़कर चलने लगतीं। उनमें से किसी को भी, किसी भी शहर की दूरी या रास्ता मालूम नहीं था। साइकिल के दो पहिये थे, जो सपनों जितने तेज़ दौड़ते थे। ए...