इश्क क्यों कीजिए ? By - Amardeepsahudeep

 ज़िंदगी में एक बार ज़रूर 'इश्क़' कीजिए। ज़रूरी नहीं कि आपका 'इश्क़' मुक्कमल हो, आपको मंज़िल मिल ही जाए, मगर एक बार के लिए ख़ुद को डुबो कर देखिए। शायद 'इश्क़' न हो मुकम्मल मगर हाँ आप इंसानी तौर पर ज़रूर मुक्कमल हो जाएँगे। 


हो सकता है कि आप अपने महबूब के साथ ताउम्र नहीं रह पायें।

शायद आप उनको देखने को भी तरसें मगर जो वो एक मुलाक़ात होगी न 'इश्क़' वाली, ख़्वाब वाली, कुछ पल या दो दिन वाली, वो बची हुई तमाम उम्र को महका जाएगी। 


जानते हैं, समूर्णता कुछ नहीं है, बस आप और आपके महबूब का वो साथ, वो लम्हा है, जिसमें आप दोनों ख़ामोश रहते हैं।

और लरजतीं साँसें तमाम उम्र के अफ़साने एक-दूसरे के आत्मा पर उकेरे जाती है। उन ख़ामोश लम्हों में बुने गये, वो मुलायम शब्द, इश्क़ के गुज़र जाने के बाद भी आपके साथ रहेंगे।


सो 'इश्क़' कीजिए और टूट कर कीजिए। एक महबूब चुनिए और मिल कर बुनिए कुछ रेशम से ख़्वाब!

लेखक - अमरदीप साहू "दीप" हिन्दी साहित्य में सिल्वर मेडल - 2021 कानपुर विश्वविद्यालय

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