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एक पिंजरा

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 हाँ आऊँगी मैं रोज लेट बस....एक दिन लेट क्या हो गई घर सर पर उठा लिया..... बेटा मैं तो बस इत्ता कह रहा था कि...बस अब्बू अब कुछ नही सुनना मुझे तंग आ गई इस रोज रोज की खिटपिट से.....मुझे अपने पिंजरे की चिड़िया न समझना...कि कैद में रखोगे । और इसके बाद दोनों तरफ ख़ामोशी छा गई.....बिटिया पैर पटकते हुए बाहर वाले कमरे में चली गयी और अरशद मियां वहीं आँगन में बैठ के अपने बनाए पिंजरों को देखने लगे...अरशद मियां पक्षियों के लिए पिंजरे बनाया करते थे....आज वो याद कर रहे थे रौशनी की अम्मी को..कि वो होती तो समझाती बिटिया को कि मैं तो बस पूछ रहा था देर कहाँ हो गयी क्यों हो गई.. बाप हूँ चिंता तो होगी न...... बिटिया अब बड़ी भी हो चली है और जमाना तो......। पर आज उसने मुझे अहसास दिलाया कि मेरी परवाह उसके लिए बंदिश है । बिटिया अंदर आई और किचन में घुस गयी उसे भूख लगी थी उसने खाना निकाला और फिर बाहर वाले कमरे में चली गयी....अरशद मियां भी रूम में गये और बोले बेटा मैं....बिटिया ने अबकी बार कुछ नही कहा बस एक बार गुस्से से देखा और फिर खाने लगी...बेटा हर पिंजरे का मकसद बंधन नहीं होता, चिड़िया को हम पालना चाहे...

यूपीएससी का दर्द / Problems in UPSC

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# यूपीएससी_का_दर्द यूपीएससी का रिजल्ट आया है। कैमरे लग चुके हैं। टोपर्स के घर टीवी चैनलों की छापेमारी शुरू हो चुकी है। उनकी सफलता का राज जानने के लिए। वो भी अपने  घर के सादे से ड्राइिन्ग रूम में इन्टरव्यू देते हुए 'कन्सिस्टेंसी और फण्डामैन्टल्स' पर ध्यान देने को सफलता का मूल बताएंगे। और हाँ फैमिली को बडा सा थैंक्यू कहेंगे सपोर्ट के लिए। फिर शुरू होगा देशभर में इनसे प्रेरणा लेकर फटाफट ऐनसीआरटी की किताबें खरीदने का दौर। आत्मविशवास के उबाल आयेंगे। कुछ कर गुजर जाने के जज्बे जोर मारेंगे। फिर कयीं लौंडे दिल्ली कूच करेंगे। और सबसे पहले दाढ़ी न कटवाने का प्रण लेगें। मुखर्जीनगर अब जोश से लबरेज हो जायेगा। इश्कबाजी और फेसबुक से जरा परहेज। फिर एकसाल की जी तोड़ मेहनत के बाद कुछ का लिस्ट में नाम आयेगा और कुछ घटी हुई ऐनर्जि और बढी हुई फ्रस्टेशन के साथ दिल्ली में अपनी बुकिंग जारी रखेंगे। यूपीएससी की रगडमपेलिस में आपकी बढी हुई बेतरतीब दाढ़ी ही आपकी सिन्सेयरिटी का परिचायक होती है। फ्रस्टेशन उम्र और दाढ़ी तीनों बढ़ती जाती हैं। फिर पीछे से कोई तीन चार साल वाला जूनियर लौंडा पहले ही अटेम्प्ट म...

प्रेम की पराकाष्ठा को समझना

कुछ दिन पहले मेरी करीब तेईस साल की घरेलू सहायिका ने शिकायत, चिढ़ और क्रोध भरे लहजे में कहा- ‘देखो जरा… अभी मुझसे ब्रेक-अप हुए एक हफ्ता भी नहीं हुआ कि इसने अपने वाट्सऐप पर दूसरी लड़की की फोटो लगा ली!’ इस पर मेरा चौंकना लाजिमी था। मैंने कहा कि तुम्हें कैसे मालूम कि वह उसकी दूसरी स्त्री मित्र ही है? कोई अन्य भी तो हो सकती है! मेरे प्रश्न के उत्तर में उसने कहा- ‘वह ऐसा ही है। मुझे चिढ़ा रहा है!’ मैंने कहा कि तुम तो कह रही थीं, तुम्हारा उससे अब कोई वास्ता नहीं! फिर तुम क्यों उसका नंबर सहेज कर बैठी हो और उसकी डीपी देख रही हो? वह भी जानता होगा कि तुम जरूर देखोगी। इस पर उसने लापरवाही से जवाब दिया कि तो क्या है! उसकी इस लापरवाही भरी अदा और लहजे में कहीं कुछ ऐसा था, जिसने मुझे चौंका दिया। यों प्रेम के विषय में अक्सर एक जानी-मानी कहावत का इस्तेमाल करते हुए कहा जाता है कि युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज है। प्रेम को परिभाषित करते हुए उदात्त प्रेम और वासना जैसी श्रेणियों की बात की जाती रही है और यह भी सच है कि यह भेद आज भी लौकिक जगत में मौजूद है। तभी शायद कहीं एक-दूजे के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया...

ध्रुवस्वामिनी नाटक ( Part 3 )

नाटक ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद अनुक्रम तृतीय अंक पीछे      (शक-दुर्ग के भीतर एक प्रकोष्ठ। तीन मंचों में दो खाली और एक पर ध्रुवस्वामिनी पादपीठ के ऊपर बाएँ पैर पर दाहिना पैर रखकर अधरों से उँगली लगाए चिन्ता में निमग्न बैठी है। बाहर कुछ कोलाहल होता है।) सैनिक : (प्रवेश करके)  महादेवी की जय हो! ध्रुवस्वामिनी : (चौंककर)  क्या! सैनिक :  विजय का समाचार सुनकर राजाधिराज भी दुर्ग में आ गए हैं। अभी तो वे सैनिकों से बातें कर रहे हैं। उन्होंने पूछा है, महादेवी कहाँ हैं? आपकी जैसी आज्ञा हो, क्योंकि कुमार ने कहा है... ! ध्रुवस्वामिनी :  क्या कहा है? यही न कि मुझसे पूछकर राजा यहाँ आने पावें? ठीक है, अभी मैं बहुत थकी हूँ।  (सैनिक जाने लगता है, उसे रोककर)  और सुनो तो! तुमने यह नहीं बताया कि कुमार के घाव अब कैसे हैं? सैनिक :  घाव चिन्ताजनक नहीं हैं। उन पर पट्टियाँ बँध चुकी हैं। कुमार प्रधान-मंडप में विश्राम कर रहे हैं। ध्रुवस्वामिनी :  अच्छा जाओ।  (सैनिक का प्रस्थान) मन्दाकिनी : (सहसा प्रवेश करके)  भाभी! ब...

ध्रुवस्वामिनी नाटक ( Part 2 )

नाटक ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद अनुक्रम द्वितीय अंक पीछे      आगे (एक दुर्ग के भीतर सुनहले कामवाले खम्भों पर एक दालान, बीच में छोटी-छोटी-सी सीढ़ियाँ, उसी के सामने कश्मीरी खुदाई का सुंदर लकड़ी का सिंहासन। बीच के दो खंभे खुले हुए हैं, उनके दोनों ओर मोटे-मोटे चित्र बने हुए तिब्बती ढंग से रेशमी पर्दे पड़े हैं, सामने बीच में छोटा-सा आँगन की तरह जिसके दोनों ओर क्यारियाँ, उनमें दो-चार पौधे और लताएँ फूलों से लदी दिखलाई पड़ती हैं।) कोमा : (धीरे-धीरे पौधों को देखती हुई प्रवेश करके)  इन्हें सींचना पड़ता है, नहीं तो इनकी रुखाई और मलिनता सौंदर्य पर आवरण डाल देती हैं।  (देखकर)  आज तो इनके पत्ते धुले हुए भी नहीं हैं। इनमें फूल जैसे मुकुलित होकर ही रह गए हैं। खिलखिलाकर हँसने का मानो इन्हें बल नहीं।  (सोचकर)  ठीक, इधर कई दिनों में महाराज अपने युद्ध-विग्रह में लगे हुए हैं और मैं भी यहाँ नहीं आई, तो फिर इनकी चिन्ता कौन करता? उस दिन मैंने यहाँ दो मंच और भी रख देने के लिए कह दिया था, पर सुनता कौन है? सब जैसे रक्त के प्यासे! प्राण लेने और देने म...

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